August 12, 2005

सरहद (The Border)

This is the poem written by me (an unknown poet) in which I tried to depict the time of Independence behind the curtain of love. Few days back, I read 'Train to Pakistan' by Mr.Khushwant Singh and it made an everlasting impression on my mind. I decided to give my own words to represent the era of independence that was mentioned in 'Train to Pakistan'. Though my poem is mostly differ from the content of the book but the theme is same that lies on the partition in 1947. I added some of my own thoughts instead of copying from the book blindly.

There are mainly five parts of the poem depicting different situations. The first part envisages a village 'Mahua' and its life before partition. The second part is a romantic one which reflects the true love story of a Hindu boy with a Muslim girl. The third part is the heart of the poem which depicts the partition time and its consequences. While fourth part describes about the situation of 'Mahua' after partition and the last part shows the parting of Muslim girl to Pakistan with her father.

All the five parts are mutually inclusive to envisage the period of independence. I feel this is the best poem written by me so far. I spent more than three days to think again and again on this topic and finally I am happy that it has been completed.


एक गॉंव है महुआ बिल्‍कुल छोटा सा,
दीन दुनिया से बेखबर अपनी ही दुनिया में खोआ सा।

हवाऒं में जिसकी पीली मिट्‍टी की खुशबू आती है।
खेतों में उसके सरसों बोई जाती है।
पेडों पर कोयल कूका करती है।
कूँऐ में बच्‍चे कंकड फैका करते हैं।
मंदिर के घंटों से स्‍पंदन पैदा होता है, वहीं कुछ दूरी पर मज्ञ्‍जित में मौलाना नमाज़ अदा कर जाते हैं।
जैसे ही ये ध्‍वनियॉं कानों से टकराती हैं,
लोगों के लिये एक नई सुबह हो जाती है।
सब कायॊं में व्‍यस्‍त हो ज़ाते हैं,
महुआ की ज़िंदगी सांसे लेने लग जाती है।

लाहौर से दिल्‍ली जाने वाली सवारी गाडी दोपहर के खाने की याद दिलाती है।
मक्‍के की रोटी, सरसों का साग, उस पर गुड की छोटी सी ड़ेली, भरी दुपहरी में भी परम आनंद पहुंचाती है।
शाम को छुक - छुक करके चलने वाली मालगाडी अपने घर की याद दिलाती है।
गॉंव के बीचों बीच वटबृक्ष के नीचे पंचायत बैठा करती है।
हिन्‍दू-मुस्‍लिम सब मिल बैठ दिन भर की बातें बतियाते हैं।
उधर औरतें चूल्‍हा फूका करतीं हैं।
इधर बच्‍चे गुल्‍ली-डंडा खेला करते हैं।

यूंही देखते-देखते सूयॆ अस्‍त हो जाता है, रात दस्‍तक देने लग जाती है,
दिल्‍ली से लौटकर लाहौर जाने वाली गाडी सोने का संकेत दे जाती है।
बस फिर कुछ पल के लिये जिन्‍दगी थम सी जाती है,
पूरा महुआ चिर निद्रा में खो जाता है।
और एक नई सुबह आ जाती है........



महुआ की शुष्‍क हवाऔं में भी एक प्‍यार पनपता है।
किसान का बेटा रामलाल मौलाना की बेटी नूराह से रोज छुप-छुप कर मिलता है।
दोनों मीठी बातें करते हैं, जीने मरने की बातें करते हैं,
पल-पल हर-पल सपनों के शीशमहल में एक जिन्‍दगी जिया करते हैं,
पर जब भी रामलाल शादी की बातें किया करता है, नूराह की ऑंखों में ऑंसू आ जाते हैं,
वो सिसक-सिसक कर रोती और हर बार की तरह बस यही वो कहती।
तुम हिन्‍दू मैं मुस्‍लिम यही सबसे बडा दुभॊग्‍य है।
इस जात पात के चक्‍कर में जकडा अपना प्‍यार है।
शायद रिश्‍तों में बंधना अल्‍लाह का फरमान नहीं।
इसलिये इस जन्‍म में अपना निकाह मुम्‍किन नहीं...मुम्‍किन नहीं।
जैसे ही ये शब्‍द रामलाल के कानों में पडते हैं उसका बायीं ऑंख का ऑंसू झट से पलकों पर आ जाता है।
अपने सूखे अधरों से वो बस नूराह-नूराह कह पाता है। नूराह-नूराह कह पाता है।

यही उन दोनों की पे॒म कहानी है,
दो पल मिलते हैं, साथ-साथ चलते हैं, सपनों के शीशमहल बनते बिगडते हैं।
ऎसे ही हर दिन निकल जाता है और एक नई सुबह आ जाती है......



उधर हालात कुछ और ही थे।
हो गये इस देश के दो टुकडे थे।
मोहब्‍बत के दुश्‍मनों ने लकीर खींचकर सरहद बना दी।
उस सरहद की मॉंग खूनी रंग से सजा दी।
मैं हिन्‍दू तू मुस्‍लिम ...तू हिन्‍दू मैं मुस्‍लिम...
लोगों की सांसो का सौदा करती इस सरहद की सच्‍चाई थी।
पल-पल घुटती दम तोडती लोगों की अछ्‍छाई थी।

अब तो सफेद दीवारों पर खूनी शाम ढला करती थी।
घर के ऑंगन में हर रोज़ एक चिता जला करती थी।
खुद की परछाइयों ने भी अपना दामन छोड दिया,
गलियों में बस रूहें चला करती है।
गॉंव कस्‍बों में जहॉं जिंदगी बसा करती थी,
कब्रो ने भी सांसे भरना सीख लिया।
हवाऒं में जहॉं पीली मिट्‍टी की खुशबू आती थी,
इन हवाऒं तक ने अपना मुख मोड लिया।

लाहौर और दिल्‍ली वाली गाडी अब लाशें लेकर आती थी।
कौन हिन्‍दू कौन मुस्‍लिम ये लाशें बोला करती थी।
अब हर रात कब्रों में ढला करती थी।
हर सुबह लाशें ऒढा करती थी.....



महुआ के चॉंद में भी ग्रहण लग गया।
सरसों का रंग पीले से सुखॅ लाल हो गया।
गॉंव के बीचो-बीच वटवृक्ष के नीचे अब लाशें बैठा करती थी।
मंदिर में घंटे बजते थे पर मज्‍जिद सूनी रहती थी।
हर सहर एक खौफ ऒढे रहती थी, हर रात खूनी ऑंसू पिया करती थी।

वहीं खिडकी में नूराह नम ऑंखों से खुले आकाश को देखा करती थी।
अपनी मोहब्‍बत को बादलों में घिरते देख सिसक-सिसक कर रोया करती थी।
तारे गिना करती थी, उन तारों से कहा करती थी।
" कल मुझे सरहद पार जाना है अपने अब्‍बू के साथ।
तुम मुझे वहॉं जरुर मिल जाना , तुममें मैं अपनी मोहब्‍बत ढूंढ लूंगी।
तुम्‍हारे भरोसे बची कुची जिंदगी जी लूंगी....जिंदगी जी लूंगी।"



दिल्‍ली से लाहौर वाली गाडी आज कुछ देर से आती है।
नूराह अपने अब्‍बू के संग उस गाडी में चढ जाती है।
गाडी चलने लग जाती है, उसकी सांसें थम सी जाती है।
टूटती बिखरती सी वो दरबाजे पर खडी हो जाती है।
तभी कुछ दूर से उसे रामलाल दिखाई देता है।
उसकी बोझिल सांसें चलने लग जाती है।
पर गाडी की रफ्‍तार और तेज हो जाती है।
नूराह धबरा सी जाती है।
दौडता-भागता सा रामलाल उसके पास आ जाता है।
अपनी कपकपाती उंगलियों से उसके हाथों को छूकर यही बस कहता है,
" तुम अपना ख्‍याल रखना।
तुम सही कहती थी.....
इस जन्‍म में अपना निकाह मुम्‍किन नहीं।
इस जन्‍म में न सही अगले जन्‍म में मेरी ही बनकर रहना। मेरी ही बनकर रहना। "

वो कुछ न कह पाती है, जिन्‍दा लाश बनकर रह जाती है।
धुंधली आंखो से अपनी मोहब्‍बत को ओझल होते देखती है।
गाडी और तेज हो जाती है।
वो सरहद पार कर जाती है।
वो सरहद पार कर जाती है।

" इस सरहद ने इंसानों को तोड दिया।
मोहब्‍बत करने वालों को तडपता छोड दिया।
इसकी मांग खूनी रंग से सजी है,
इसलिये हर घर में एक चिता जली है। एक चिता जली है।"


-----------समाप्‍त------------

1 comment:

Anonymous said...

Its a nice but true depiction of the situation...though d pathetic communalism is d subject here but d poem is a real portrait of d condn of v ..d common ppl .. gud trial to portray d sentiments of the ppl who faced all such condn
overall a nice,touching poem..
keep writing roopak
well composed
gud luck